गुरुवार, 18 मार्च 2010

स्त्री गुड़िया नही, निर्माता है!!

मैं जब भी कोई अखबार या पत्र-पत्रिका का महिला अंक पढ़ती हूँ तो वहां सिर्फ महिला जागरण की ही बात होती है. महिला जागरण पर लेख भरे पड़े रहते हैं. नारी जागरण की ही चर्चा होती है. नारी जागरण पर विशेष सम्मलेन आयोजित होते हैं वहां पर भी जाती हूँ. सब तरफ से एक आवाज उठती है नारियों जागो. तुम्हे अपना हक़ लेने के लिए आगे आना है विकास करना है. समाज का सम्पूर्ण दायित्व तुम्हारे उपर है, "जागो" बस जागो.
इतना सब होने के बाद मैं खाली समय में सोचती हूँ कि नारी सोई कब थी? एक यक्ष प्रशन सा मेरे सामने बार-बार खड़ा हो जाता है. हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज भले ही कहा जाता है. सारा श्रेय पुरुषों को मिल जाता है. लेकिन इसके निर्माण में नारी की ही महत्वपूर्ण भूमिका रहती है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी ही समाज की धुरी है.
इस संसार को बनाने में हमारा योगदान नकारा नहीं जा सकता. शास्त्रों मे भी स्वीकार किया है "मातृमान पितृमान आचार्यवान पु्रुषो वेदा:। (शतपथ ब्राह्मण) जब माता पिता तथा आचार्य  ये तीन उत्तम शिक्षक मिलते हैं तभी एक अच्छे नागरिक का निर्माण होता है। वेद कहते हैं "माता निर्माता भवति" माता ही निर्माण करती है यदि निर्माता ही सोया रहता तो यह सृष्टि या संसार आज जिस स्थिति में दिखता है वह नहीं होता।
नारी तो सतत् दिन रात निर्माण की प्रक्रिया में संलग्न है। फ़िर वही प्रश्न उठता है कि वह सोई कब है? वह पुरुषों के सोने के बाद सोती है और उनसे जागने से पहले जागती है। तो फ़िर किसे जगाया जा रहा है? आज जागरण की बात आती है तो जागने का अवसर है पुरुषों का। वे ही अपने कर्तव्य से विमुख होते जा रहे हैं। सदि्यों से पुरुषों का कार्य रहा है कि गृहस्थी चलाने के लिए आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध करे। उसकी द्वारा लाई हुयी सामग्री से ही स्त्री गृहस्थी का निर्माण करती है। अगर निर्माण सामग्री का आना ही अवरुद्ध हो जाए तो फ़िर चल गई घर-गृहस्थी। पुरुष और स्त्री एक दुसरे के पुरक हैं, बिना एक दुसरे के गृहस्थी तथा संसार का कार्य सम्पन्न नही हो सकता। इसलिए दोनो को ही जागना पड़ेगा, अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहना पड़ेगा, तभी गृहस्थी-समाज और राष्ट्र प्रगति कर सकता है। हम एक दुसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्यों की इति श्री ना करें।
नारी आदि काल से त्याग और करुणा की दयावान प्रतिमा है।जब जब समाज को आवश्यक्ता हुई उसने त्याग का श्रेष्ठ आदर्श सामने रखा है, मैत्रेयी, गार्गी, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, लक्ष्मी,  दुर्गा, काली,सरस्वती, पार्वती, सीता, अहिल्या, अनुसुईया से लेकर आज तक भी इसने अपने सुखों का त्याग किया है। लेकिन यह त्याग क्यों क्या स्वार्थ था इस त्याग के पार्श्व में? सिर्फ़ एक ही स्वार्थ था अच्छे सुसंस्कृत परिवार, नागरिक एवं देश का निर्माण्।
यह कोमलांगी करुणा की त्यागमयी मुर्ती ही नही है। आवश्यक्ता पड़ने पर नारी के द्वारा किए गये पुरुषोचित कार्यों से इतिहास भरा पड़ा है जिसको देख सुनकर आज भी लोग दांतो तले उंगली दबा लेते हैं। लेकिन इसने अपने संस्कारों को कायम रखते हुए समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया। किसी कवि न बहुत सुदंर ढंग से इसे चित्रित किया है " वह भी श्रृंगार बनती थी पर कमर कटारी कसी हुयी." श्रृंगार के साथ के साथ आत्म रक्षा का कितना सुन्दर संयोजन इन पंक्तियों में है. यदि नारी अपनी करनी पर आ गयी तो बड़े बड़ों के सिंहासन हिला दिए.
इस लिए जो भ्रम समाज में फैला हुआ है की नारी अबला है. यह उसके पैरों में जंजीर पहनाने जैसा है. उसे मानसिक रोगी बनाने जैसा है. जैसे किसी स्वस्थ व्यक्ति को यदि हम प्रतिदिन कहने कि तुम बीमार हो गये हो. तो एक दिन वह अपने आप को बीमार समझने लगता है. बीमारों जैसा व्यवहार करने लगता है. अपने को रोगी मान बैठता है. यही भ्रम की स्थिति आज की नारी के साथ है. इस भरम से बाहर निकाल कर यथेष्ट को पाना होगा. तथा जागना जगाना छोड़ कर अपना हक़ अपने बलबूते पर प्राप्त करना होगा. जिसमे परिवार का भी साथ आवश्यक है.
पिता, भरतार, पुत्र से अलग होकर स्त्री कभी रह ही नहीं सकती. फिर कैसी स्वतंत्रता और कैसी परतंत्रता? यह तो हमारे द्वारा ही बनाया गया परिवार है. हमारा स्वयं का परिवार है. इसके निर्माण में हमारा भी सक्रिय योगदान है. नारी हमेशा प्रत्येक रूपों में पुरुष का मार्ग दर्शन करती है. उसने हमेशा पुरुष के समक्ष एक चुनौती रखी है, जब वह पुत्री होती है तो पिता के समक्ष उसे उचित शिक्षा-दीक्षा देकर योग्य बनाकर विवाहादि करने का लक्ष्य होता है जिससे सुख पुर्वक जीवन व्यतीत कर सके। इस चुनौती का सामना करने के लिए पिता दिन-रात श्रम करके धन संचय करता है। जब विवाहादि हो जाता है तब वह पति के समक्ष एक लक्ष्य रहता है कि संतानादि से गृहस्थ भरपुर हो तथा उसके संचालन के लिए परिश्रम द्वारा अर्थ अर्जन करे। जब वह माता के रुप मे होती है तो पुत्र के समक्ष लक्ष्य होता है कि उसे संसारिक कार्यों  के योग्य बनना है जिससे वह संसार मे अपने कुल वंश को आगे बढाकर अपने पुरुषार्थ से माता-पिता का नाम रौशन कर सके।
इस तरह स्त्री ही वह सुर्य है जिसके चतुर्दिक गृहस्थी के ग्रह चक्कर काटते है। शायद इसीलिए इसे ग्रहणी की उपमा दी गयी। इस संसार को चलाने के लिए नर और नारी दोनो की महती भुमिका है।

6 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

अच्छी पोस्ट।
आभार

शरद कोकास ने कहा…

इस संसार को चलाने के लिए नर और नारी दोनो की महती भुमिका है।
यह बात उल्लेखनीय है ।

बेनामी ने कहा…

"इस संसार को चलाने के लिए नर और नारी दोनो की महती भुमिका है।"
सार्थक आलेख - धन्यवाद्

विजयप्रकाश ने कहा…

अत्यंत सारगर्भित लेख...कई नई जानकारियां मिली.धन्यवाद

बेनामी ने कहा…

superb blog

Vivek Jain ने कहा…

what you are telling is absolutly right, Nice
vivj2000.blogspot.com